Friday, August 19, 2011

अन्ना की आंधी- क्या उड़ेगा, क्या बचेगा?

जिन्होंने यह तय कर लिया है कि अन्ना का साथ देना है, उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि इतना सशक्त लोकपाल हमारी कार्यप्रणाली पर क्या नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है. वहीँ जो लोकपाल के  पक्ष में नहीं हैं उनकी नज़र इस बात पर नहीं जाती है कि  लज्जाहीन भ्रष्टाचार  मात्र हमारा धन ही नहीं लूट रहा है अपितु वह नई पीढ़ी को  भ्रष्टाचार को स्वीकार करने का आदी भी बना रहा है. अन्ना ने अपने जीवन की शुरुआत तब की थी जब शून्य भ्रष्टाचार एक सामान्य अवधारणा थी. नई पीढ़ी अपने जीवन का आगाज़ एक ऐसे समय में कर रही है जबकि सुबह दूधवाले से लेकर राजाओं, कलमाड़ीओं से  होते हुए  प्रधानमंत्री तक सब भ्रष्टाचार को पोसते नज़र आ रहे हैं. रासायनिक दूध पीने वाली तथा जादूई ताकतों के बल पर समस्या का समाधान ढूढने वाले प्रधानमंत्री की बेचारगी सुनने  वाली नई पीढ़ी से भविष्य में भ्रष्टाचार मिटाने की आशा रखना निहायत ही   अव्यवहारिक दिखता है. सशक्त लोकपाल पर्याप्त हो, अपर्याप्त हो अथवा खतरनाक हो नयी पीढ़ी अन्ना के साथ पुनः शून्य भ्रष्टाचार की अवधारणा को समझ रही है, यह एक बहुत ही शुभ लक्षण है. घोर निराशा के वातावरण में आशा के नए बीज बोने वाले अन्ना को हजारों प्रणाम हैं.

भ्रष्टाचार बेशर्मी के साथ इस सीमा तक बढ चुका है कि किसी नए प्रयोग के कारण इसके और बढ जाने कि संभावना नहीं रही है. वे हमारा धन, विश्वास और भविष्य सब लूट रहे हैं. अगर लोकपाल बन जाने से इस लूट का एक हिस्सेदार और बढ जाएगा तो बढ जाए. भ्रष्टाचार की चरम सीमा पर खड़े होकर यह कहना कि इससे क्लिष्टता बढ जाएगी निश्चित ही एक अच्छा विचार नहीं है. एक सशक्त लोकपाल नहीं बनने से जो हो रहा है उसमें परिवर्तन की कोई संभावना दिखाई नहीं दे रही है. ..हाँ, लोकपाल बनने से परिवर्तन हो ही जायेगा इस पर भी संदेह है. मैंने किसी चैनल पर अन्ना को सुना था कि एक बार जन लोकपाल बिल पास हो जाने दो भ्रष्टाचार समूल नष्ट हो जाएगा. बाद में उन्होंने कपिल सिब्बल को प्रतिउत्तर में कहा कि सत्तर प्रतिशत तक भ्रष्टाचार मिट जाएगा. ..जन लोकपाल के काम करते समय यह आंकड़ा और भी नीचे आ सकता है. लेकिन जिसने भी जन लोकपाल बिल को या उसके बिन्दुओं को पढ़ा है वह यह आँख बंद कर के कह सकता है कि असर पड़ेगा. सरकार जिस तरह का बिल प्रस्तुत कर रही है उसके अनुसार बनने वाले लोकपाल की स्थिति एक डंडाधारी होमगार्ड से अधिक कुछ नहीं होगी. जबकि अन्ना का लोकपाल थानेदार सी ताकत का होगा. उसके पास डंडा, बन्दूक, हवालात सब होगा.  

यद्यपि इस मामले में हमारे अनुभव कुछ ख़ास अच्छे नहीं है. थाना, पुलिस सब होने के बावजूद अपराध जारी हैं. उलटे थानेदार की जानकारी में ही सारे अपराध हो रहे हैं. चोर चोरी कर रहे हैं और थानेदार अपना हिस्सा उड़ा रहे हैं. लोकपाल के लिए हमें किसी और मिट्टी के बने लोग मिल जायेंगे इस पर संदेह है. लोकपाल भी भ्रष्टाचारियों से बटवारा और शरीफ शहरी को डंडा नहीं दिखायेगा इस पर संदेह है. लेकिन हम बिना थाना पुलिस के समाज की कल्पना भी नहीं कर सकते. जरा सोच कर देखिये अगर पुलिस समाज में से खत्म कर दी जाये फिर भी हम इतने सुरक्षा और इत्मिनान से अपने घर में बैठ सकते हैं? भार्गव साहब ने सिखाया था कि "नहीं मामा से काना मामा अच्छा होता है."

एक महत्वपूर्ण संदेह यह भी है कि इतना अधिक सशक्त लोकपाल निरंकुश हो जायेगा और इससे डिक्टेटरशिप को बढ़ावा मिलेगा. लेकिन जहाँ तक मैंने जन लोकपाल को समझने कि चेष्टा की है, उसकी समस्त ताकतें भ्रष्टाचार तथा भ्रष्टाचारियों पर ही लागू हो सकतीं हैं. अन्य कार्यप्रणालियों से उसका कोई ख़ास लेना देना नहीं है. फिर भी प्रजातंत्र में सीमा से अधिक शक्तिशाली संस्था स्वीकार्य नहीं है. इस पर अवश्य ही चिंतन होना चाहिए...चिंतन होना चाहिए बहस नहीं. बहस तो अपनी जायज अथवा नाजायज इच्छा को तार्किक जामा पहनाने का नाम है. चिंतन सत्य की तलाश की क्रिया है. भ्रष्टाचार है तो भ्रष्टाचारियों को सलाखों के पीछे भेजने वाली न्यायपालिका भी है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राजा, कलमाड़ी, कनिमोज़ी आदि तिहाड़ की शोभा न्यायपालिका की वजह से ही बढ़ा रहे हैं. न्यायपालिका के इस स्वच्छ आचरण के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि वह कार्यप्रणाली में भागीदार नहीं है. न्यायपालिका में भ्रष्टाचार मामले के अदालत में आने के बाद ही शुरू हो सकता है. इसलिए अगर आप ने गड़बड़ की है तो पहले तो आप अदालत के सामने आईये फिर अदालत देखेगी..मार दिया जाए या छोड़ दिया जाए.... भ्रष्टाचार के विरुद्ध न्यायपालिका एक महत्वपूर्ण साझीदार है. लेकिन अनुभव बताते हैं कि बात सिर्फ इतने से बनने वाली होती तो लोकपाल की आवश्यकता ही नहीं पड़ती. न्यायपालिका सशक्त लोकपाल का विकल्प नहीं है. हाँ लोकपाल के कार्य में सहयोगी अवश्य हो सकती है. जन लोकपाल के समर्थकों को इस बिंदु पर अवश्य ही ध्यान देना चाहिए. कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक ही डंडे से हांकना कुछ ठीक नहीं लगता है.

अभी दिल्ली दूर है... जी हाँ!.. ! अन्ना तिहाड़ से निकल चुके हैं. सरकार अपनी शर्तों पे पांच गुना झुक चुकी है. तीन दिन की इज़ाज़त पंद्रह दिन में तब्दील हो चुकी है. दूसरी आज़ादी के मतवाले अपनी पहली जीत पर खुशियाँ मना रहे है. कल्पनाशील खबर्चियों की अस्वस्थता की खबरों के बीच तिहाड़ से  भूखे अन्ना का उर्जा से भरा सन्देश तो  बस जैसे कमाल ही कर गया. ...इस बार अन्ना भी पूरी तैयारी से आये हैं. एक बार फिर अन्ना को झूठे वादे कर के बरगलाना संभव नहीं दिखता..उलटे अब आप देखिये कि अन्ना आप को किन किन तरीकों से चौंकाते है? राजघाट पर ध्यान तो आपको इशारा करने के लिए भी किया गया था. अन्ना से निबटना इस बार आसान न होगा. बुजुर्गों और साधुओं से बचकानी हरकतें करने का जवाब जनता दे रही है..... फिर भी आप जानते हैं कि अभी बहुत दूर जाना है...मांग तीस दिन की थी बात समझौते से ही निकली है.

Courtesy: in.rediff.com 
परहित वश जिनके मन मांहीं, तिन कहूँ जग दुर्लभ कछु नाहीं. -रामचरितमानस

Keywords: Anna, Hazare, India Against Corruption, Civil Society, Lokpal, Democracy

1 comment:

  1. सरकार-देश-समाज निरंकुश और भ्रष्ट बनता गया है उत्तरोत्तर। और यह पहल मुझे उस निरंकुशता पर लगाम का हिस्सा नजर आती है।
    समाज अपने को नियंत्रित करने की कवायद कर रहा है - भले ही अजीब गरीब तरीके से!

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