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Saturday, September 3, 2011

दिवा-स्वप्न की 'आधी जीत'

तर्क के लगभग हर मोर्चे पर कमजोर होने के बावजूद टीम-अन्ना अपनी अप्रत्याशित जीत दर्ज करने में सफल रही. इस जीत में जितना योगदान अन्ना की नैतिक दृढ़ता और राजनैतिक समझ का है, उतना ही योगदान बाबा रामदेव के चीर-हरण एवं सरकार के लोकपाल बिल की  पिलपिलाहट  का भी है. यद्यपि सिविल सोसाइटी ने दावा किया है कि बिल तैयार करने से पहले उन्होंने काफी व्यापक तरीके से विचारों एवं सुझावों का इसमें समावेश किया है. किन्तु जिस तरह का बिल प्रस्तुत किया है वह भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के साथ साथ भय का वातावरण बनाने का काम भी करता है. भय व्यवस्था की कार्य क्षमता के लिए घातक भी हो सकता है. बाहर से हम कितने भी सुझाव ग्रहण कर लें जब तक भीतर बैठा मन किसी एक विचार की और झुका हुआ है, हमारे निर्णय प्रभावित होते ही रहेंगे. जनलोकपाल का प्रारूप तैयार करने वाले लोग एक ऐसे वातावरण से आये हैं जहाँ उन्होंने भ्रष्ट व्यवस्था के साथ काम किया है. उनके आक्रोश का यह एक बड़ा कारण है. लेकिन उनका आक्रोश जहाँ आन्दोलन को उर्जा देता है, वहीँ वह उनके प्रारूप में भी द्रष्टिगोचर होता है. आन्दोलन संचालन में भी कुछ ऐसे विषय हैं जिन पर ध्यान देना आवश्यक है. अमेरिकन टिप्पणी एवं सुरक्षा परिषद् में प्रदर्शन ऐसे ही बिंदु हैं. सिविल सोसाइटी को इन बिन्दुओं पर अपना मत साफ़ करना चाहिए था. द्रढ़ता एवं गंभीरता का अंतर सहज ही दूरद्रष्टि का विश्वास नहीं होने देता है.

अन्ना अलग तरह के आदमी हैं. वे आक्रोशित नहीं हैं. मजे की बात यह है कि वे निराश भी नहीं हैं.... हाँ, क्षुब्द्ध जरूर हैं. वे आज़ादी से पहले के आदमी हैं. उन्होंने गांधी के अनशन का जमाना देखा है. वे  स्वतंत्र भारत के स्वप्न के साक्षी भी रहे हैं. इतना तो हम सब समझते हैं कि आज हम कैसे भी हों किन्तु वैसे नहीं हैं जैसे सपने के लिए इस देश के आम आदमी ने लाठियां और गोलियां खायीं थीं. आम आदमी से लेकर पूँजीपति तक सब एक बात पर सहमत हैं कि देश की प्रगति सरकारों के कारण नहीं हैं बल्कि सरकारों के बावजूद है. चौसठ वर्ष बाद भी आम आदमी असमानता की चक्की में पिस रहा है. अन्ना चौसठ वर्ष के अनुभव का फायदा उठाने की बात करते हैं. उस समय जो कमी रहा गयी थी उसको ठीक करने की बात करते हैं. वे मात्र मानसिक गुणा-भाग की  जगह प्रयोगों से जन्मे रास्तों पर विश्वास करते हैं. वे अपने ही उद्देश्य के साथ समझौता करने के लिए भी तैयार हैं. उन्हें पता है कि जनलोकपाल के कठोर प्रावधानों का सदन के भीतर परीक्षण आवश्यक है. लड़ाई को आधी जीत पर रोक देने का शायद यह भी एक कारण था. वे तो निर्विकार मन से चले हैं, विकारों को दूर करने के लिये. जनता तर्क भले ही न पहिचाने लेकिन उसे नीयत समझने में देर नहीं लगती है. इसीलिये अन्ना की सरलता और सहजता दिल वालों का दिल जीत लेती है.

भ्रष्टाचार की गाँठ इतनी उलझ चुकी है कि अक्ल के वेयर हाउसों को उसके सुलझने का कोई सिरा नहीं दिखाई देता है. थके दिमाग कई बार भ्रष्टाचार को कानूनी दर्जा देने की वकालत भी करते नज़र आते हैं. लेकिन अन्ना जानते हैं कि यह उन विदेशी शासकों से अधिक शक्तिशाली नहीं है जिसे हर पांच साल में चुनाव भी नहीं लड़ना पड़ता था. जोशीले युवा वर्ग को छोड़ थें तो समझदारों को १६ अगस्त तक अभियान से कुछ खास उम्मीद नहीं थी. वे तो बस भ्रष्ट मंडलों को परेशान होते देख खुश थे. भावनात्मक सहयोग के बदले एक अच्छे तमाशे की उम्मीद थी. किन्तु धुन के पक्के अन्ना ने दस दिन में ही यह समझा दिया कि जन-जागरण के प्रकाश में भ्रष्टाचार का चोर ठहर नहीं सकता. दोनों सदनों को अच्छे बच्चों की तरह कदम ताल करते देख प्रोढ़ों के मन में भी उम्मीद जागती है. और बुजुर्ग तो अन्ना की उस करामात पर फ़िदा हैं जिसमें वे राजनैतिक तंतुओं का बड़ी सफाई के साथ अपने उद्देश्य के लिये प्रयोग करते हैं...जी हाँ, मैं विपक्ष को डांट कर पक्ष को सुधारने की बात ही कर रहा हूँ. चिट्ठी पकड़ते ही 'आधी जीत' की घोषणा तथा अनशन तोड़ने से पहले समर्थकों से अनुमति मांगना अन्ना की कुछ ऐसी अदाएं थीं जिन्होंने समझदारों को कुर्सी पर उछल जाने के लिये मजबूर कर दिया. सामाजिक विकारों के कचरे में विवादों का लोहा बीनने वालों को भले ही अन्ना खाली बर्तन नजर आते हों, वे अपने अनुभव व सहज बुद्धि से दिमाग वालों का भी दिल जीत लेते हैं.  

व्यवस्था के भ्रष्टांगों में छटपटाहट है. मांगें स्वीकार होने के बावजूद चालाक लोग पैंट में चेन लगवाने में  सफल रहे हैं. इस हार से सुधार की उम्मीद नहीं है. लड़ाई निश्चित ही लम्बी चलने वाली है. आन्दोलन की कोर कमेटी का स्वरुप भी बदल चुका है. 'स्वामी-वेश' चुगली की अग्नि में झुलस चुके हैं.  अन्ना महज अनशन-विशेषज्ञ-सदस्य नहीं रहे. वे अब अभियान की प्राण उर्जा हैं. सिविल सोसाइटी के आक्रोशित जोश को उनके होश की लगाम ने थाम लिया है. अन्ना का  मत ही अब अंतिम मत है. जनता को भी दूसरी पारी का इंतजार है. इंडिया गेट पर जश्न मनाने वाले इसबार रामलीला में भी शिरकत फरमाना चाहते हैं. विशेषाधिकार  की चिंता करने वालों को अब लड़कपन के काम बंद कर देने चाहिए. अन्यथा अगली बार उनके कुर्तों का भगवान ही मालिक है. लाइलाज बीमारी के इलाज़ में कुछ भी उथल पुथल हो सकती है. निर्विकार अन्ना अवश्य ही स्थितियों को अपने अनुसार संचालित करेंगे. मुझे बार बार वो छोटा बच्चा याद आता है, जो चिल्ला रहा था, "गाँधी इज ग्रेटेस्ट अन्ना इज लेटेस्ट."  नेतृत्व विहीन युवा देश में बूढ़े अन्ना का प्राकट्य नयी उम्मीदें और नए सपने लेकर आया है .



बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः प्रभवः स्मयदुषिताः
अबोधोपतश्चान्ये     जीर्णमङ्गे   सुभाषितं.
( विद्ववर्ग ईर्ष्याग्रस्त हैं, सत्ताधारी अहंकार में चूर हैं  साधारण लोग अज्ञान में दबे हैं. अतः नीति की बात कहने का मन नहीं होता.)   - भर्त्रहरि नीति-शतकं
Keywords: Anna, Hazare, AnnaHazare, Lokpal, Janlokpal, Civil Society, Corruption, Indai, Politics, Hindi 

Friday, August 26, 2011

समाधान की समस्या के अंधे मोड़

इस दुनिया में "लज्जा" करने के लिए इतने कारण उपलब्ध हैं कि कोई चाहे तो अपना पूरा जीवन भांति भांति के विषयों पर लज्जा कर के बिता सकता है. किन्तु कभी कभी ऐसी घटनाएँ सामने आ जाती हैं कि लज्जा स्वाभाविक रूप से आ ही जाती है..ऐसी ही एक घटना तब घटी जब अन्ना ने प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह, नेता प्रतिपक्ष श्रीमती सुषमा स्वराज एवं लोकसभा अध्यक्षा आदरणीय मीरा कुमार सहित संपूर्ण सदन की भावपूर्ण विनती अस्वीकार करते हुए  अपना अनशन जारी रखने की घोषणा की. कई कीर्तिजीवी लोगों के हाथों के तोते सदन के इस ऐतिहासिक आचरण को देख कर उड़ गए. ज्ञानीगण इतने उत्साहित थे कि सरकार के कर्तव्यों की इतिश्री समझ गेंद अन्ना के पाले में बताने लगे. लेकिन  दस दिन के भूखे अन्ना ने कह दिया कि ये घास न केवल बासी है बल्कि इसके असली होने पर भी संदेह है. राष्ट्र की सर्वोच्च संस्था की साख की इतनी बुरी दुर्दशा किसी भी नागरिक के लिए अवश्य ही महान लज्जा का विषय है.

अपने पूर्वाचरणों से समूचा सदन अपनी साख इतनी गवां चुका है कि  अन्ना को उसकी कथनी पर विश्वास नहीं है. अन्ना ही क्यों सारा देश देख रहा है कि किस तरह से मात्र बारह घंटे पहले ही अन्ना के सहयोगियों के मुंह प्रणब मुखर्जी की डांट सुन कर उतरे हुए थे. दस दिन पहले ही जिस सरकार ने अन्ना को तिहाड़ के दर्शन कराये थे, पंद्रह दिन पहले जिस सरकार का अदना सा प्रवक्ता; किशन बाबू राव हजारे उर्फ़ अन्ना को भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा बता रहा था, प्रारंभ से ही जिसके वितर्क मंत्री अन्ना को अनिर्वाचित तानाशाह बता रहे थे; आज अगर उस सरकार का मुखिया अन्ना को सलाम कर भी रहा है तो भी कोई कैसे विश्वास कर ले. अन्ना ने साफ़ कह दिया कि इज्जत बख्सने के लिए तो धन्यवाद है, किन्तु काम इतने से चलने वाला नहीं है. यदि आप गंभीर हैं तो कल से सदन में जनलोकपाल पर चर्चा प्रारंभ करिए. साथ में आप अन्य संस्करणों के बिन्दुओं पर भी चर्चा कर सकते हैं. किन्तु हर हाल में जनलोकपाल या उसका निकटतम रूप ही पास होना चाहिए. प्रमुख विपक्षी दल भाजपा को घात लगाये देख अन्ना ने अभी से अपना द्रष्टिकोण साफ़ करने की चेतावनी दे दी. हवा की राजनीति करने वालों ने तुरंत ही आंधी की तरफ पीठ करना उचित समझा और जनलोकपाल को अपना समर्थन देने की खुली घोषणा कर दी.

विराट जनआक्रोश केवल राजनेताओं को ही सोचने के लिए मजबूर नहीं कर रहा है, बल्कि 'सभ्य समाज' और अन्ना भी आशातीत समर्थन को अपने अपने नज़रिए से देख रहे हैं. किरण बेदी और अरविन्द केजरीवाल  को जहाँ इतिहास में नाम दर्ज करने की जल्दी है और इसलिए अभी नहीं तो कभी नहीं का नारा दे रहे हैं, वहीँ अन्ना चतुर राजनेताओं के साथ दोहरी चाल खेलना चाहते हैं. वे चाहते हैं कि यदि आप सचमुच लोकपाल पर गंभीर हैं तो आपको उस पर वाद-विवाद और चर्चा करने का पूर्ण अवसर मिलना चाहिए. ताकि सभ्य समाज द्वारा बनाये गए प्रावधानों का कानून बनने से पहले परीक्षण हो सके. आप जनलोकपाल पर बहस प्रारंभ करिये मैं  समय देने के लिए अपना अनशन समाप्त कर दूंगा.  और यदि फिर धोखा देते हैं, तो हमें एक बार फिर नए सिरे से लडाई प्रारंभ करने का अवसर मिलेगा. और अगली बार बात सिर्फ लोकपाल की नहीं होगी, बल्कि सम्पूर्ण क्रांति की होगी..जिस असली आज़ादी की बात होती है, अगली लड़ाई उस आज़ादी के लिए होगी. जिस  लड़ाई के मुद्दे व्यापक होंगे, समर्थन और भी व्यापक होगा..एक और भी बड़ा जनसैलाब होगा.

लोकपाल वह ऐतिहासिक कानून होगा जिसके बनने से पहले ही बच्चा बच्चा उसके प्रावधानों को समझ चुका है. भ्रष्टाचार के दांत आज से पहले कभी इतने खट्टे नहीं हुए. जनता और अन्ना दोनों अपनी लड़ाई सैद्धांतिक स्तर पर जीत चुके हैं. अब तो इसको व्यवहारिक एवं तर्कपूर्ण रूप देना 'सभ्य समाज' और सदन की जिम्मेदारी है. सदन की समय और प्रक्रिया की मांग और सभ्य समाज की जिद प्रथम द्रष्टया तो जायज़ है किन्तु व्यक्तिगत रायों के चलते अविश्वसनीय भी है....बड़ी चीज़ या तो जनता है या फिर अन्ना. सारी संसदीय प्रक्रियाएं जनता के लिए हैं, जनता संसदीय प्रक्रियाओं के लिए नहीं है. सभ्य समाज और सदन कुछ भी चाहे अब तो इस देश में वही होगा जो जनता चाहेगी. अन्ना इस बात को जानते हैं.....क्यों?.............. क्योंकि अन्ना भारत हैं.


आसक्ति सब तज, सिद्धि और असिद्धि मान अपमान भी,
योगस्थ होकर कर्म कर,             है योग समता-ज्ञान ही.

-श्रीहरिगीता 
Keywords: Anna, Hazare, India Against Corruption, Civil Society, Lokpal, Democracy

Sunday, August 21, 2011

ढाई घर की चालें और दिल्ली की दूरी

समय की गंभीरता देखते हुए पुराने चेहरे और पुरानी रणनीति दोनों बदल दिये गये हैं. प्रधानमंत्री जी कह रहे हैं कि सशक्त एवं प्रभावी लोकपाल बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं. सरकार  समझ गयी है कि इस बार दमन की नीति नहीं चलेगी... लेकिन बहानों का रास्ता अभी खुला है. "अच्छे बहाने चाहिए." विज्ञापन आ चुका है. विज्ञापन बहुत ही गज़ब का बहाना है. साथ में प्रतिबद्धता का बोनस भी है. लेकिन कथनी करनी की भिन्नता ही तो प्रमुख समस्या है. आपका पुराना लोकपाल आपकी प्रतिबद्धता को दर्शाने के लिए पर्याप्त है. सामनीति की खाल के भीतर से भेदनीति की गुर्राहट आ रही है. 

शराब पुरानी ही है. प्रक्रिया का तकाजा है, आखिर 'सभ्य समाज' ही तो देश नहीं है... और भी तो रहते हैं यहाँ. बात  जब जनता ने ही तय करनी है तो अवसर सबको मिलना चाहिए... इस लिए प्रक्रिया है.. प्रक्रिया है तो समय भी लगेगा... और समय?.वो आपके  पास है नहीं क्योंकि आप अनशन पर सवार हैं. इसलिए सरकार ने यह तय किया है कि अपनी समस्या का आप स्वयं समाधान करिये... श्री श्री को ख़ुशी होगी. रही बात विपक्ष के ओजस्वी वक्ताओं की तो जो कल यह कह रहे थे कि शांतिपूर्ण विरोध जनता का मौलिक अधिकार है, वे यह भी तो समझेंगे कि एक व्यक्ति की भूख हड़ताल से देशव्यापी निर्णय नहीं किये जाते है. विज्ञापन का मोहरा तो सीधा है लेकिन चाल बड़ी गहरी है.

अन्ना पहले से तय कर के आये हैं कि इस बार वादों में नहीं उलझना है, परिणाम आना चाहिए. रामलीला मैदान पहुंचते ही अन्ना ने घोषणा कर दी कि अनुमति भले ही पंद्रह दिन की हो, जब तक पूरी रामलीला समाप्त नहीं हो जाएगी मैदान नहीं छोड़ेंगे.  अन्ना ने अपने सिपाहियों को भरोसा दिला दिया है कि पंद्रह दिन तक खाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी... लोगों को जोड़ते रहिये.... प्रतिक्रिया हो रही है. अभी बहुत हैं जो जानते हैं कि लोकपाल के लिए जान लड़ाना ठीक नहीं है. ये भी बेवफा निकल सकता है. लेकिन अन्ना के पास एक और नब्ज है...'चुनाव प्रक्रिया सुधार' की नब्ज.. 'कुर्सी उतार अधिकार' की नब्ज. अगर किसी भी रूप में देश की चिंता है, तो आप लोकपाल में हमारा सहयोग करिये हम आपसे आपके तर्क के लिए लड़ने का वादा करते है.. जनता जुड़ती रहनी चाहिए. भीड़ बढ़ती रहनी चाहिये.  'सभ्य समाज' जानता है कि जनता है  तो जीत है.

अन्ना पांच दिन से भूखे हैं. गंगा में ढेरों पानी बह गया है. बात अभी वहीँ अटकी है... लोकतंत्र में कौन बड़ा है? प्रक्रिया या जनता! ...चलो कोई बात नहीं, आपको उत्तर मालूम है. लेकिन जनता क्या चाहती है, इसको जानने का सही तरीका क्या है? किससे पूछें? जो झंडे हिला रहे हैं, उनसे? या जो यातायात में फंसे हैं उनसे? कोई तो प्रक्रिया होनी चाहिये! एक पक्ष कह रहा है कि आप की जनता पर भरोसा नहीं है. दूसरा कह रहा है  कि आपकी प्रक्रिया पर भरोसा नहीं है. दोनों एक  दूसरे के माल को दूषित बता रहे हैं. दोनों अपना माल गलाना चाहते हैं. समझौते के बिना यह सौदा होना संभव नहीं है. सम्बन्ध तो बेचारे फ़रवरी में ही ख़राब हो चुके हैं..बातचीत बंद की धमकियां दोनों ओर से उड़ रहीं हैं. कांटा शून्य से आगे नहीं बढ़ सकता ...जब तक बहस है कुछ नहीं हो सकता. चिंतन होना चाहिए. अन्ना ने किया..तो अन्ना ने ना खाने और ना खाने देने का निर्णय लिया. दिन प्रतिदिन अन्ना को जनता का सहयोग बढ़ता जा रहा है. सरकार ने बहस की तो अपना लोकपाल छोड़ जनता से विचार माँगने पड़े...अभी भी अवसर है...प्रधानमंत्री जी! बहस की प्रक्रियायों से समय निकालिए. कभी राजघाट पर बैठ कर ध्यान करने का प्रयास करिये. बापू की आत्मा को सुनिये. जनता से संयम करिये...कभी आप भी तो ऐसा करिये..फिर प्रक्रिया चुनिये. प्रजातंत्र में प्रक्रिया वही है जो जनता का मन पहचाने.




जो कार्य करते श्रेष्ठ जन, करते वही हैं और भी.
उनके प्रमाणित पंथ पर ही पैर धरते हैं सभी.
- श्रीहरिगीता अध्याय-३ श्लोक-२१

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Friday, August 19, 2011

अन्ना की आंधी- क्या उड़ेगा, क्या बचेगा?

जिन्होंने यह तय कर लिया है कि अन्ना का साथ देना है, उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि इतना सशक्त लोकपाल हमारी कार्यप्रणाली पर क्या नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है. वहीँ जो लोकपाल के  पक्ष में नहीं हैं उनकी नज़र इस बात पर नहीं जाती है कि  लज्जाहीन भ्रष्टाचार  मात्र हमारा धन ही नहीं लूट रहा है अपितु वह नई पीढ़ी को  भ्रष्टाचार को स्वीकार करने का आदी भी बना रहा है. अन्ना ने अपने जीवन की शुरुआत तब की थी जब शून्य भ्रष्टाचार एक सामान्य अवधारणा थी. नई पीढ़ी अपने जीवन का आगाज़ एक ऐसे समय में कर रही है जबकि सुबह दूधवाले से लेकर राजाओं, कलमाड़ीओं से  होते हुए  प्रधानमंत्री तक सब भ्रष्टाचार को पोसते नज़र आ रहे हैं. रासायनिक दूध पीने वाली तथा जादूई ताकतों के बल पर समस्या का समाधान ढूढने वाले प्रधानमंत्री की बेचारगी सुनने  वाली नई पीढ़ी से भविष्य में भ्रष्टाचार मिटाने की आशा रखना निहायत ही   अव्यवहारिक दिखता है. सशक्त लोकपाल पर्याप्त हो, अपर्याप्त हो अथवा खतरनाक हो नयी पीढ़ी अन्ना के साथ पुनः शून्य भ्रष्टाचार की अवधारणा को समझ रही है, यह एक बहुत ही शुभ लक्षण है. घोर निराशा के वातावरण में आशा के नए बीज बोने वाले अन्ना को हजारों प्रणाम हैं.

भ्रष्टाचार बेशर्मी के साथ इस सीमा तक बढ चुका है कि किसी नए प्रयोग के कारण इसके और बढ जाने कि संभावना नहीं रही है. वे हमारा धन, विश्वास और भविष्य सब लूट रहे हैं. अगर लोकपाल बन जाने से इस लूट का एक हिस्सेदार और बढ जाएगा तो बढ जाए. भ्रष्टाचार की चरम सीमा पर खड़े होकर यह कहना कि इससे क्लिष्टता बढ जाएगी निश्चित ही एक अच्छा विचार नहीं है. एक सशक्त लोकपाल नहीं बनने से जो हो रहा है उसमें परिवर्तन की कोई संभावना दिखाई नहीं दे रही है. ..हाँ, लोकपाल बनने से परिवर्तन हो ही जायेगा इस पर भी संदेह है. मैंने किसी चैनल पर अन्ना को सुना था कि एक बार जन लोकपाल बिल पास हो जाने दो भ्रष्टाचार समूल नष्ट हो जाएगा. बाद में उन्होंने कपिल सिब्बल को प्रतिउत्तर में कहा कि सत्तर प्रतिशत तक भ्रष्टाचार मिट जाएगा. ..जन लोकपाल के काम करते समय यह आंकड़ा और भी नीचे आ सकता है. लेकिन जिसने भी जन लोकपाल बिल को या उसके बिन्दुओं को पढ़ा है वह यह आँख बंद कर के कह सकता है कि असर पड़ेगा. सरकार जिस तरह का बिल प्रस्तुत कर रही है उसके अनुसार बनने वाले लोकपाल की स्थिति एक डंडाधारी होमगार्ड से अधिक कुछ नहीं होगी. जबकि अन्ना का लोकपाल थानेदार सी ताकत का होगा. उसके पास डंडा, बन्दूक, हवालात सब होगा.  

यद्यपि इस मामले में हमारे अनुभव कुछ ख़ास अच्छे नहीं है. थाना, पुलिस सब होने के बावजूद अपराध जारी हैं. उलटे थानेदार की जानकारी में ही सारे अपराध हो रहे हैं. चोर चोरी कर रहे हैं और थानेदार अपना हिस्सा उड़ा रहे हैं. लोकपाल के लिए हमें किसी और मिट्टी के बने लोग मिल जायेंगे इस पर संदेह है. लोकपाल भी भ्रष्टाचारियों से बटवारा और शरीफ शहरी को डंडा नहीं दिखायेगा इस पर संदेह है. लेकिन हम बिना थाना पुलिस के समाज की कल्पना भी नहीं कर सकते. जरा सोच कर देखिये अगर पुलिस समाज में से खत्म कर दी जाये फिर भी हम इतने सुरक्षा और इत्मिनान से अपने घर में बैठ सकते हैं? भार्गव साहब ने सिखाया था कि "नहीं मामा से काना मामा अच्छा होता है."

एक महत्वपूर्ण संदेह यह भी है कि इतना अधिक सशक्त लोकपाल निरंकुश हो जायेगा और इससे डिक्टेटरशिप को बढ़ावा मिलेगा. लेकिन जहाँ तक मैंने जन लोकपाल को समझने कि चेष्टा की है, उसकी समस्त ताकतें भ्रष्टाचार तथा भ्रष्टाचारियों पर ही लागू हो सकतीं हैं. अन्य कार्यप्रणालियों से उसका कोई ख़ास लेना देना नहीं है. फिर भी प्रजातंत्र में सीमा से अधिक शक्तिशाली संस्था स्वीकार्य नहीं है. इस पर अवश्य ही चिंतन होना चाहिए...चिंतन होना चाहिए बहस नहीं. बहस तो अपनी जायज अथवा नाजायज इच्छा को तार्किक जामा पहनाने का नाम है. चिंतन सत्य की तलाश की क्रिया है. भ्रष्टाचार है तो भ्रष्टाचारियों को सलाखों के पीछे भेजने वाली न्यायपालिका भी है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राजा, कलमाड़ी, कनिमोज़ी आदि तिहाड़ की शोभा न्यायपालिका की वजह से ही बढ़ा रहे हैं. न्यायपालिका के इस स्वच्छ आचरण के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि वह कार्यप्रणाली में भागीदार नहीं है. न्यायपालिका में भ्रष्टाचार मामले के अदालत में आने के बाद ही शुरू हो सकता है. इसलिए अगर आप ने गड़बड़ की है तो पहले तो आप अदालत के सामने आईये फिर अदालत देखेगी..मार दिया जाए या छोड़ दिया जाए.... भ्रष्टाचार के विरुद्ध न्यायपालिका एक महत्वपूर्ण साझीदार है. लेकिन अनुभव बताते हैं कि बात सिर्फ इतने से बनने वाली होती तो लोकपाल की आवश्यकता ही नहीं पड़ती. न्यायपालिका सशक्त लोकपाल का विकल्प नहीं है. हाँ लोकपाल के कार्य में सहयोगी अवश्य हो सकती है. जन लोकपाल के समर्थकों को इस बिंदु पर अवश्य ही ध्यान देना चाहिए. कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक ही डंडे से हांकना कुछ ठीक नहीं लगता है.

अभी दिल्ली दूर है... जी हाँ!.. ! अन्ना तिहाड़ से निकल चुके हैं. सरकार अपनी शर्तों पे पांच गुना झुक चुकी है. तीन दिन की इज़ाज़त पंद्रह दिन में तब्दील हो चुकी है. दूसरी आज़ादी के मतवाले अपनी पहली जीत पर खुशियाँ मना रहे है. कल्पनाशील खबर्चियों की अस्वस्थता की खबरों के बीच तिहाड़ से  भूखे अन्ना का उर्जा से भरा सन्देश तो  बस जैसे कमाल ही कर गया. ...इस बार अन्ना भी पूरी तैयारी से आये हैं. एक बार फिर अन्ना को झूठे वादे कर के बरगलाना संभव नहीं दिखता..उलटे अब आप देखिये कि अन्ना आप को किन किन तरीकों से चौंकाते है? राजघाट पर ध्यान तो आपको इशारा करने के लिए भी किया गया था. अन्ना से निबटना इस बार आसान न होगा. बुजुर्गों और साधुओं से बचकानी हरकतें करने का जवाब जनता दे रही है..... फिर भी आप जानते हैं कि अभी बहुत दूर जाना है...मांग तीस दिन की थी बात समझौते से ही निकली है.

Courtesy: in.rediff.com 
परहित वश जिनके मन मांहीं, तिन कहूँ जग दुर्लभ कछु नाहीं. -रामचरितमानस

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